17 अप्रैल, 2024

समाधिस्थ अनुराग - -

तमाम आलोक स्रोत बुझ जाते हैं अपने आप,

जब अस्तित्व से कोई निकटस्थ तारा टूट
जाता है, महाशून्य में रह जाता है
केवल अनंत निस्तब्धता का
साम्राज्य, दरअसल,
अबूझ जीवन
विलम्ब से
जान
पाता है हृदय की मौन भाषा, कुछ कविताएं
अमूल्य अंगूठी की तरह खो जाती हैं
समय के गर्त में, जिसे उम्र भर
हम खोजते रह जाते हैं बस
स्मृति कुंज में पड़े रहते हैं
कुछ टूटे हुए अक्षर के
कंकाल, कोहरे में
भटकती रह
जाती है
प्रणय
आत्मा, समाधिस्थ हो जाती हैं देह की दुनिया,
पत्थरों पर पड़ा रह जाता है फूलों का
स्तवक निष्प्राण सा गंध विहीन ।
- - शांतनु सान्याल

13 अप्रैल, 2024

अदृश्य किनारा - -

परछाई बढ़ चली है, सुबह का मंजर न रहा,

हद ए निगाह, अब साहिल ए समंदर न रहा,

ये सच है कि, मुहोब्बत की कोई इंतहा नहीं,
वो जुनून ए इश्क़ अब दिलों के अंदर न रहा,

चेहरों पे हैं चस्पां, मुख़्तलिफ़ रंगों के मुखौटे,
जो सिखाए जीने का फ़न वो क़लन्दर न रहा,

ओढ़ कर ख़ुत्बा ए पैरहन हर मोड़ पे रहज़नी,
दिलों को जीत सके ऐसा कोई सिकंदर न रहा,

अजीब दौर है कि हज़ार ख़ेमों में बंट गए इंसां,
किस किनारे उतरें, घाट पे हक़ गो लंगर न रहा,
- शांतनु सान्याल

10 अप्रैल, 2024

स्वर्ण मीन - -

छूना चाहता हूं उसे समीप से, स्वर्ण मीन सा वो

डूबता चला जाता है गहन अंधकार में, उलंग
देह बढ़ता जाता है उसकी ओर पूर्णग्रासी
चंद्र की तरह, अथाह जलराशि के तल
को ढूंढता हूँ मैं मायावी इस संसार
में, स्वर्ण मीन सा वो डूबता
चला जाता है गहन
अंधकार में ।
हरित नील
रंगों के
जल
बिंदु खेलते हैं उन्माद लहरों के साथ, जुगनुओं
का नृत्य चलता है रात भर, अद्भुत एक
आभास जीवित रखती है मुझे उस
गहराई में प्राणवायु विहीन,
शेष प्रहर में वृष्टि भिगो
देती है अंदर तक मरु
धरा को, उर्वर
भावनाओं
में पुनः
खिल
उठते हैं नन्हें नन्हें अनाम फूल, जीने की अदम्य
उत्कंठा अशेष रहती है कृष्ण मृग के चीत्कार में,
स्वर्ण मीन सा वो डूबता चला जाता
है गहन अंधकार में ।
- - शांतनु सान्याल

07 अप्रैल, 2024

मर्म कथा - -

मुझे ज्ञात है विलीन उपरांत की मर्म कथा,

हृद्पिण्ड देह का भस्मीभूत होना, नदी
ही एकमात्र अंतिम वक्षस्थल है जहाँ
तमाम मान अभिमान डूब जाते
हैं, किनारे पर तैरते रह जाते
हैं शुभ्र वस्त्र, छिन्न पुष्प -
हार, धुएँ के साथ
उठता हुआ
दग्ध मांस
गंध !
कोई मुड़ कर नहीं देखता, बस मूकाभिनय
के सिवाय कुछ भी बाक़ी नहीं होता,
एक यही परम सत्य मुझे स्वयं
से जोड़े रखता है, दरअसल
एक कल्प लोक में हम
करते हैं निवास, हर
कोई पास रहने
का दावा
करता
ज़रूर है पर वास्तविकता में कोई भी नहीं
होता हमारे आसपास, स्वयं को भोगनी
होती है अपनी सभी व्यथा, मुझे
ज्ञात है विलीन उपरांत की
मर्म कथा ।।
- - शांतनु सान्याल












05 अप्रैल, 2024

महकती चाँदनी - -

महकती सी फ़िज़ा चाँदनी उतर चली है मद्धम मद्धम,

नाज़ुक दिल की परतों पे गिर रही है क़तरा ए शबनम,
लरज़ते ओंठ पे, गोया बिखर चली हैं नशीली सुर्ख़ियां,
चल रहे हैं सितारों की ज़मीं पे हाथ थामे दम - ब -दम, 
बहुत ख़ूबसूरत है ज़िन्दगी का ये फ़लसफ़ा ए रहगुज़र,
हज़ार मुश्किलें, रुकावटें फिर भी रवां रहे अपने क़दम,
कहाँ पे मिले किस की तलाश थी कुछ भी याद न रहा,
ज़रुरी नहीं ख़ालिस निकले, हर चेहरा राहत ए मरहम,
- - शांतनु सान्याल

28 मार्च, 2024

शून्य निवास - -

एक अंतर्निहित सुरंग खोजती है अंतिम प्रस्थान,

प्रतिबिम्ब से चेहरे को अलग करना नहीं आसान,

शरीर और छाया के मध्य रहती है जन्मों की संधि,
उदय अस्त अनवरत, सृष्टि का नहीं होता अवसान,

महा शून्य में बह रहे हैं, जन्म मृत्यु के अग्नि वलय,
इसी धरा में है अभिशप्त जीवन, यहीं मुक्त बिहान,

मायाविनी रात्रि में खोजता हूँ व्यर्थ का अज्ञातवास,
मोहक जुगनू कभी हथेली पर और कभी अंतर्ध्यान,

अनगिनत प्रयास फिर भी आँचल में शून्य निवास,
विश्व भ्रमण के बाद भी, स्वयं से व्यक्ति है अनजान,
- - शांतनु सान्याल

25 मार्च, 2024

प्रवाहिनी - -

अंतःसलिला बहती है अंतरतम की गहराई में,

मौन प्रणय साथ निभाए जीवन की उतराई में,

सभी रंग मिल कर हो जाते हैं सहज एकाकार,
महत शांति मिलती है दिव्य वृक्ष की परछाई में,

वक्षस्थल के अंदर बहती है, अंतहीन प्रवाहिनी
बिन डूबे मिले न मोती सागर के अनंत खाई में,

अनमोल शल्कों को देह से उतरना है एक दिन,
प्रत्याभूति कुछ भी नहीं, नियति की सिलाई में,
- - शांतनु सान्याल 

22 मार्च, 2024

ठहराव से पहले - -

रंग गहरा ऐसा कि निगाह से रूह में उतर जाए,

छुअन ऐसी हो कि रिसते घाव छूते ही भर जाए,

कुछ जुड़ाव जो दूर रह कर भी जिस्म को जकड़े,
ख़ुश्बू वो कि रगों से बह कर दिल में बिखर जाए,

हर एक मुस्कुराहट में, हज़ार फूलों की पंखुड़ियां,
हर सिम्त गुलशन दिखाई दे जहां तक नज़र जाए,

इक अजीब सी कशिश है उस तिलस्मी निगाह में,
दिन ढलते ही बहकते क़दम अपने आप घर जाए,

वफ़ा ऐसी हो कि सात जन्मों के परे भी रहे ज़िंदा,
जिस्म का क्या, लाज़िम है कोहरे में कहीं मर जाए,

बेशुमार हसरतें अंतहीन चाह बस उम्र है मुख़्तसर,
सांस के झूले जाने किस पल अचानक ठहर जाए,
- - शांतनु सान्याल







19 मार्च, 2024

विलिनता की ओर - -

मृत्यु पार की दुनिया का मानचित्र जो भी हो,
हर किसी को उस कुहासे में एक दिन
खो जाना होगा, किसे पता कौन सा
मार्ग है कितना सहज या
कठिन, तर्क वितर्क
से दूर देह का
का है ये
अवसान, जन्म लेते ही हर एक जीव करता है
मृत्यु पत्र में हस्ताक्षर, समय शेष होते ही
उसे मुरझाना होगा, हर किसी को
उस कुहासे में एक दिन खो जाना
होगा । वो तमाम प्रेम घृणा
प्रकृत कृत्रिम, रिश्तों के
मुखौटे, आजन्म
साथ निभाने
के शपथ
पत्र,
सब कुछ फ़र्श पर पड़े रह जाएंगे, इत्र की ख़ाली
शीशी की तरह धीरे धीरे स्मृति गंध भी विलीन
हो जाएगी, परित्यक्त शीशी भी एक दिन
टूट जाएगी, किसी को याद करना तब बेवजह
का बहाना होगा, हर किसी को
उस कुहासे में एक दिन खो
जाना होगा ।
- - शांतनु सान्याल

17 मार्च, 2024

गहन बिंदु - -

सुदूर दिगंत में सघन मेघ उभर चले, नदी खोजती

है एक निरापद आश्रय समुद्र के वक्षस्थल में,
लौटेंगे सभी पंछी अपनी अपनी नीड़ों में
ये ज़रूरी नहीं, डूब जाते हैं कुछ एक
नाव, दिग्भ्रम हो कर मुहाने के
अतल में, नदी खोजती
है एक निरापद
आश्रय
समुद्र के वक्षस्थल में । अस्ताचलगामी सूर्य भी तलाशता है रात्रि पांथशाला, आकाश पथ
से गुज़रता है निःशब्द सपनों का चाँद
फेरीवाला, अंधकार कर देता है
सभी मान  - अभिमान का
निपटारा, धीरे धीरे
जागृत होता है
स्पर्श का
वर्णमाला, सुलग उठते हैं शेष प्रहर रक्तिम पलाश
वासंतिक अनल में, नदी खोजती है एक
निरापद आश्रय समुद्र के
वक्षस्थल में ।
- - शांतनु सान्याल

16 मार्च, 2024

कौन हो तुम - -

वो नदी हो तुम जिस की चाहत में प्यासे हैं बंजर किनारे,

वो मेघ छाया हो तुम जिसे छूने को तरसते हैं देव
दूत सारे,

कल्पना से परे है तुम्हारी शिल्प कृति जो मिट्टी में
प्राण डाले,
तुम्हारी दृष्टि में हर व्यक्ति है बराबर चाहे वो जीते
अथवा हारे,

वो अदृश्य ज्योत्स्ना हो तुम जो देह का पुनरुद्धार
कर जाए,
निराकार कोई प्रियतम हो तुम जो भ्रमित जीवन
को सुधारे,

न जाने क्या हो तुम, कभी अगोचर और कभी पूर्ण
प्रकाशित,
जो भी हो तुम अन्तःस्थल में बहाते हो आलोक स्रोत
के धारे ।
- - शांतनु सान्याल


15 मार्च, 2024

दिल की बात - -

दिल की बात हर्फ़ ए आग बन अल्फ़ाज़ से उभरे,

इंसानियत का तक़ाज़ा, हर एक आवाज़ से उभरे,

महदूद नज़रिया रुक जाती है मज़ाहिब के बाड़ में,
इक नया समा, आज़ाद परिंदे के परवाज़ से उभरे,

लहू का रंग एक सा है, फिर सलूक इम्तियाज़ी क्यूं,
एक दूजे के लिए दुआएं ख़ूबसूरत अंदाज़ से उभरे,

हर एक इंसां को चाहिए ज़िन्दगी के वाज़िब हक़ूक़,
दरख़्त ए एतिहाद, इस ज़मीं पे बहुत नाज़ से उभरे,
- - शांतनु सान्याल 

14 मार्च, 2024

ख़ामोशी का सफ़र - -

अजीब सी है ख़मोशी दूर ठहरा हुआ तूफ़ां सा लगे है,

हाकिम का ख़ुदा हाफ़िज़, मुझे देख के हैरां सा लगे है,

उठ गई बज़्म ए अंजुम रात भी है कुछ लम्हे की साथी,
आंख की गहराइयों में डूबता  हुआ कहकशां सा लगे है,

सारे उतरन उतरते गए, नज़दीक से देखने की ज़िद्द में,
दाग़ ए दिल देखते ही आईना बहोत पशेमां सा लगे है,

लफ्ज़ तक सिमट के रह जाते हैं सभी तरक़्क़ी के दावे
इंतिख़ाब क़रीब है वज़ीर कुछ ज़्यादा परेशां सा लगे है,

रक़ीब ओ रफीक़ में फ़र्क़ करना अब है बहुत मुश्किल
जिसने खंज़र उठाया, वो शख़्स मेरा आश्ना सा लगे है,
- - शांतनु सान्याल


13 मार्च, 2024

कुछ याद आया - -

मुद्दतों बाद, मुस्कुराने का हुनर याद आया,

फिर ज़िन्दगी का, अधूरा सफ़र याद आया,

यूँ तो, अपना ठिकाना भी याद नहीं हम को,
उसे देखते ही वो खोया हुआ घर याद आया,

आईना पूछता रहा, ज़िन्दगी भर का हिसाब,
ख़्वाब से उभरे तो इश्क़ का असर याद आया,

नज़दीकी समझा देती है असलियत खुल कर,
रस्ते में फलों से लदा कड़ुआ सज़र याद आया ।
- - शांतनु सान्याल






11 मार्च, 2024

ग़ुबार के उस पार - -

किसी वीरान टूटे फूटे स्टेशन की तरह लोग तकते

रहे गुज़रती हुई सभ्यता की ट्रेन, उसकी तेज़
रफ़्तार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता रहा
ग़ुबार ही ग़ुबार, ये और बात है कि
किसी ने भी उन्हें नहीं देखा,
वो छूटते गए अंध रास्ते
के मोड़ पर, आख़िर
धुंध में वो सभी
चेहरे गुम
हो गए,
उनका किसी भी बही ख़ाते में नहीं मिलेगा कोई
समाचार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता रहा
ग़ुबार ही ग़ुबार । दरअसल वो सभी
थे किसी निम्न देवता के बच्चे,
अपने अस्तित्व को जीवित
रखने की कोशिश में
वक़्त से पहले
बूढ़ा गए,
वो ख़ुद
को
तलाशते रहे महुए की टोकरी में, चकमक पत्थरों
की क्षणिक स्फुलिंग में, सूखे हुए पलाश फूलों
में, तेंदू पत्तों के बंडलों में, सप्ताहांत के हाट
में कप बसी धोते हुए, वो ख़ुद को खोजते
रहे दूर गुज़रती हुई तीव्रगामी रेल की
आवाज़ में, जो क़रीब से जाती
ज़रूर है लेकिन अपने साथ
नहीं ले जाती, बिहान का
स्वप्न सत्य होता है
लोग कहते हैं
काश ऐसा
ही होता,
सुबह सवेरे सज उठता दूर तक खुशियों का मीनाबाज़ार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता
रहा ग़ुबार ही
ग़ुबार ।
- - शांतनु सान्याल



10 मार्च, 2024

महकता हुआ ख़त - -

सूखे किनार समेटे इक उदास नदी तलाशती है

गुमशुदा जलधार को, रेत की घड़ी वक़्त
का पीछा निरंतर करती रही, फिर
भी न मिला सजल भूमि का
का वो टुकड़ा, जहां
कभी उगते थे
खुशियों के
मासूम
पौधे,
सजते थे पलकों तले जुगनुओं की नीलाभ रौशनी,
समय छीन लेता है चेहरे की नमी, अंततः
इक रेत का द्वीप हासिल होता है
मझधार को, सूखे किनार
समेटे इक उदास नदी
तलाशती है गुमशुदा
जलधार को ।
सोचने से
कहीं
होती है बरसात, स्मृतियों के काग़ज़ी नाव अनबहे
पड़े रहते हैं बंद खिड़कियों के आसपास, कोई
आवाज़ नहीं देता लेकिन हमें सुनाई देता है,
कदाचित दस्तक भी उड़ते हैं ले कर
तितलियों के पंख उधार, आँखों
की मृत नदी खोजती है
विलुप्त वृष्टि की
संभावना,
चलो
फिर दोबारा लिखें महकते हुए ख़त रूठे हुए बहार
को, सूखे किनार समेटे इक उदास नदी तलाशती
है गुमशुदा जलधार को ।
- - शांतनु सान्याल















08 मार्च, 2024

सुबह की दस्तक - -

एक अद्भुत निस्तब्धता ओढ़े रात गुज़रती है

सहमी सहमी सी, पड़े रहते हैं राह में
सघन कोहरे के चादर, कुछ ओस
की बूंदें, मकड़जाल के उस
पार बिखरे रहती हैं कुछ
अनकही भावनाएं,
कुछ असमाप्त
कविताएं,
तमाम
ज़ख़्म
सुबह के साथ भर चले हैं, फिर दहलीज़ पर
नज़र आते हैं ख़्वाबों के निशान, ज़िन्दगी
दोबारा संवरती है, एक अद्भुत
निस्तब्धता ओढ़े रात
गुज़रती है । सीने
पर हैं जीवित
कुछ अदृश्य
छुअन की
गहराई,
कुछ
उष्ण सांसों की गर्माहट, जिस्म में घुलती हुई
सजल मेघ की परछाई, रंध्र रंध्र से उठता
हुआ मायाविनी गंध, बिखरा हुआ
अस्तित्व किसी और के सांचे
में ढलता सा लगे है, इक
ख़ूबसूरत अंदाज़ में
फिर रूह की
दुनिया
निखरती है, एक अद्भुत निस्तब्धता ओढ़े
रात गुज़रती है ।
- - शांतनु सान्याल

27 फ़रवरी, 2024

अदृश्य कारागृह - -

खुले पिंजरे की अपनी अलग है मुग्धता,

मोह का पंछी चाह कर भी उड़ना
नहीं चाहता, स्पृहा प्रणय न
जाने क्या है उस अदृश्य
कारागृह के चुम्बक
में, ठहरा हुआ
एक अरण्य
स्रोत है
जो
अपनी जगह से बहना नहीं चाहता, मोह
का पंछी चाह कर भी उड़ना नहीं
चाहता । विस्तृत नीलाकाश
अक्सर फेंकता रहता है
इंद्रधनुषी फंदे, दिन
और रात के मध्य
घूमता रहता
है सपनों
का
बायस्कोप, सुदूर नदी पार सुलगता सा दिखे
है पलाश वन, मद्धम मद्धम रौशनी लिए
सिहरित से हैं अधरों के दीए, कोई
दे रहा है नाज़ुक उंगलियों से
दस्तक, एक मौन आवाज़
खींच लेता है अपने
बहुत अंदर, प्राण
उसे छोड़ कर
किसी
और
से हर हाल में जुड़ना नहीं चाहता, मोह
का पंछी चाह कर भी उड़ना
नहीं चाहता ।
- - शांतनु सान्याल

23 फ़रवरी, 2024

उतार की ओर - -

निकहत ए इश्क़ नहीं मिलता रौनक ए बाज़ार में,

बह जाते हैं सभी काग़ज़ी सफ़ीने उम्र के उतार में,

दिल के कोने में पोशीदा रहता है नाज़ुक एहसास, हल्की सी लकीर होती है दरमियाँ जीत ओ हार में,

वो ख़्वाब जहाँ मिलते हैं मुख़्तलिफ़ दिलों के रिश्ते,
डूब जाते हैं सभी चेहरे धुंध भरे सुबह के किनार में,

ये वादा कि हर किसी को मिले कुछ वाजिब हिस्सा,
गुम से हैं सभी, कैफ़ ए आज़ादी अब इस संसार में,
- - शांतनु सान्याल 

21 फ़रवरी, 2024

तराई और पहाड़ के मध्य - -

जीर्ण धार लिए बह रही है अरण्य नदी,
तराई और पहाड़ के मध्य है कहीं
इक मृत घाटियों का संसार,
बिखरे पड़े हैं अस्थियां
दूर दूर तक, सघन
जंगल के मध्य
जारी है मृगों
का  करुण
चीत्कार,
चिर
परिचित पुरातन मुखौटों का संस्कार, -
तराई और पहाड़ के मध्य है कहीं
इक मृत घाटियों का संसार।
अभयारण्य का बोर्ड है
अपनी जगह, लोग
देखते हैं नंगी
आँखों से
अँधेरे
में
रोमांचक दृश्यावली, स्वयं को घेर रखा
है कंटीले बाड़ से, सब कुछ देख कर
भी, कुछ भी नहीं देखते हैं हम
खिड़कियों के आड़ से,
इक अंध परिधि
के मध्य हम
अक्सर
बन
जाते हैं कृत्रिम मूक बधिर, तब समाज
की परिभाषा बदल जाती है पल भर
में, हम परम सुखी होते हैं अपने
घर में, शुतुरमुर्ग की तरह
एक न एक दिन हम
भी हो जाते हैं हिंस्र
शिकार, तमाम
कोशिशें तब
होती हैं
बेकार, तराई और पहाड़ के मध्य है कहीं
इक मृत घाटियों का संसार।   
- शांतनु सान्याल  

 


11 फ़रवरी, 2024

बहुत कुछ है बाक़ी - -

चश्म ए मयख़ाना के अलावा भी इक जहाँ है बाक़ी,

सारा शहर जल चुका ताहम दिले आशियां है बाक़ी,


इक अजीब सा जुनून है, अनदेखे हुए मसीहाई का,

जिस्म तो राख हुआ सिर्फ़ स्याह परछाइयां है बाक़ी,


यूँ तो वादा था कि हर चौखट पर होंगे चिराग़ रौशन,

अब और दुआ न दे बस कुछ सांसें दरमियां हैं बाक़ी,


न जाने कौन है, जो कांपते हाथों से दे रहा है दस्तक,

सर्द रात का सफ़र है कहने को कुछ घड़ियां हैं बाक़ी,


मुख़्तसर ज़िन्दगी में, अफ़सानों की कोई कमी न थी,

ख़ामोश पलों के बेशुमार अनकही कहानियां हैं बाक़ी,

- - शांतनु सान्याल


04 फ़रवरी, 2024

अशेष रात्रि - -

साँझ से पहले झील का सौंदर्य रहता है शीर्ष पर,

ठंडी हवाएं देती हैं ग्रीष्म में भी शिशिर का
आभास, उड़ते पत्तों के मध्य बहुत
समीप रहता है सुदूर का धूसर
आकाश, सूर्यास्त सब कुछ
बदल देता है, रात के
गहराते ही जाग
उठती है सुप्त
मृगया की
प्यास,
सुबह के उजाले में उभर आते हैं हिंस्र पद चिन्ह !
लहूलुहान किनार, जनअरण्य में खो जाते हैं
विगत रात के सभी चीख पुकार, कुछ
गल्प खो जाते हैं अंध गलियों में जा
कर, कुछ स्वप्न मर जाते हैं ओढ़
कर अदृश्य अंधकार, मृत
उड़ान पुल सहसा हो
उठता है जीवित,
अपनी जगह
कभी नहीं
रुकती
वक़्त
की रफ़्तार, मृग हो या मानव कोई फ़र्क़ नहीं - -
पड़ता, मुड़ कर देखने का किसे है अवकाश,
रात के गहराते ही जाग उठती है सुप्त
मृगया की प्यास ।
- - शांतनु सान्याल



कहीं गुम है ज़िन्दगी - -

हालांकि हम बढ़ चले हैं नए
दिगंत की ओर, फिर भी
कहीं न कहीं, हम हैं
बहुत एकाकी,
अंदर तक
लिए
शून्यता तकते हैं नीलाकाश,
और प्रदर्शित करते हैं,
छद्म, आत्म -
विभोर।
दरअसल, सीमाहीन हैं सभी
अभिलाषित सूची,आईने
और चेहरे के बीच
कहीं गुम है
ज़िन्दगी,
और
अजनबी सी सुबह खड़ी है - -
कहीं आख़री छोर।

* *
-  शांतनु सान्याल 

http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

29 जनवरी, 2024

रिक्त स्थान - -

क्रूसबिद्ध भावनाओं का पुनर्जन्म सम्भव नहीं,

एक दीर्घ प्रतीक्षा के बाद निशि पुष्प झर
जाते हैं, मील के पत्थर अपनी
जगह ख़ामोश खड़े रहते
हैं लोग अनदेखे से
अपने गंतव्य
की ओर
गुज़र
जाते हैं । संधि विच्छेद के बाद दर्पण शून्यता
बटोरता रहा, फ़र्श में बिखरे पड़े रहते हैं
अर्थहीन शब्दों के वर्णमाला, जीवन
का व्याकरण हर हाल में समास
बद्ध होना चाहता है, अदृश्य
तृण अपने आप प्रथम
वृष्टि में बंजर भूमि
से उभर आते
हैं, एक
दीर्घ
प्रतीक्षा के बाद निशि पुष्प झर जाते हैं । कोई
भी नहीं होता नेपथ्य में, फिर भी परिचित
ध्वनियां पीछा नहीं छोड़ती, अजीब
सा है मायावी काठ का गोलाकार
हिंडोला, फेंकता है ऊंचाइयों
से रेशमी जाल, धीरे धीरे
धूसर आकाश के
कोने, असंख्य
तारों से
भर
जाते हैं, एक दीर्घ प्रतीक्षा के बाद निशि पुष्प झर
जाते हैं ।
- - शांतनु सान्याल


27 जनवरी, 2024

अदृश्य मिट्टी - -

लब ए चिराग़ को कई बार बुझते हुए देखा है,

बज़्म है उगते सूरज की दुआ सलाम हो जाए,

धूप की उतराई में ताज को झुकते हुए देखा है,

इतना भी ख़ौफ़ ठीक नहीं कि बेज़ुबां हो जाएं,

किनारे से घबराए लहरों को लौटते हुए देखा है,

इजलासे फ़तह बहुत हुआ ज़मीं पर लौट आएं,

तख़्त के नीचे ज़मीं को खिसकते हुए देखा है,

हर शख़्स को चाहिए यहाँ ज़मानत ए ज़िन्दगी,

अज़ीम पीपल को पतझर में झरते हुए देखा है,

लब ए चिराग़ को, कई बार बुझते हुए देखा है ।

- - शांतनु सान्याल

21 जनवरी, 2024

निःशब्द शंखनाद - -

कुहासे में डूबे हुए हैं सभी रास्ते, अंधकार ढूंढता है कुछ बिखरे हुए धूप के टुकड़े, कुछ सुख के 

झरे हुए रंगीन पंख,

निद्रित शहर के 

परकोटे पर

है निशाचर 

पाखियों 

का

एक छत्र राजत्व,अंधकार समेटना चाहता है कुछ

बिखरे हुए स्वप्न खंड,

अंधकार ढूंढता है 

कुछ बिखरे हुए 

धूप के टुकड़े,

कुछ सुख 

के झरे 

हुए रंगीन पंख। जन शून्य पथ में बिखरे पड़े हैं 

विजय पताकाएं, 

विच्छिन्न पुष्प 

की पंखुड़ियां, 

अंधकार 

अपने नग्न देह में लपेटना चाहता है सरीसृपों के शल्क,असत्य शपथों 

के उतरन, वो

बुहारता 

चला 

जाता है स्वर्णकारों की गली ताकि मिल जाए कुछ अदृश्य अमूल्य कण, 

जिसे प्रातः बेच 

कर एक दिन 

और जुड़ 

जाए 

जीवन में, समुद्र तट में बेतरतीब बिखरे पड़े 

रहते हैं निःशब्द 

मौन शंख, 

अंधकार 

ढूंढता 

है कुछ बिखरे हुए धूप के टुकड़े, कुछ सुख के झरे हुए रंगीन पंख।

- - शांतनु सान्याल

17 जनवरी, 2024

ज़िन्दगी भर का हिसाब - -

हाशिये पे ज़िन्दगी रह कर भी सुर्खियाँ कम नहीं होती,

ये बात और है कि हर टपकती बूंद शबनम नहीं होती, 

वो कहते हैं, समंदर की तरह ज़ब्त में रहना सीखें हम, 
जुनूनी मौजों के सिवा, लेकिन साहिल नम नहीं होती, 

कर लो फ़तह ये दुनिया, दिल जीतना यूँ आसां नहीं,
तक़दीर के आसमान पे, नूरे अल्वी हरदम नहीं होती, 

मुझ से न मांग, उम्र भर का हिसाब चंद अल्फ़ाज़ में,
सिलसिला है मुहोब्बत का, जो कभी कम नहीं होती,

दौलत, शोहरत, मुख़्तसर ज़िन्दगी, तवील तलाश !
हर टूटता ख़्वाब, लेकिन यूँ रौशन नजम नहीं होती,

-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
अर्थ -
नूरे अल्वी - दिव्य  ज्योति 
 तवील - लम्बी 
नजम - सितारा 
ज़ब्त - नियंत्रण में


16 जनवरी, 2024

न जाने क्या था वो - -

उड़ा ले गई हमें कल रात नसीम ए खिज़ां 

या कोई अहसास दीवाना, हमें कुछ
भी ख़बर नहीं, तैरते रहे हम 
राहे सिफ़र रात भर !
कभी बादलों के 
क़रीब,
कभी चाँद के बहोत नज़दीक, न जाने वो 
कौन था, जो छाया रहा जिस्म ओ 
जां में इस क़दर, हमें कुछ 
भी ख़बर नहीं, सिर्फ़ 
याद रहा इतना
कि उसकी 
आँखों 
में थी, इक ऐसी तिलस्मानी दुनिया जहाँ 
से लौटना नहीं था अपने वश में !
वो इश्क़ था या बाज़ी ए 
मर्ग, कहना है 
मुश्किल 
हर लम्हा इक नयी ज़िन्दगी हर पल - - 
जां से गुज़र जाना - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 

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12 जनवरी, 2024

शहर भर चर्चा रहा - -

ना शनास मंज़िल पे कहीं है वो नूर ए अल्वी 
या भटकती है रूह यूँ ही छूने उफ़क रेस्मान, 

रेशमी परों पे हैं तेरी ज़रीफ़ उँगलियों के दाग़ 
उड़ चले हैं,अब्रे ज़ज्बात,यूँ जानिबे आसमान,

ज़ियारतगाहों में जले हैं फिर असर ए फ़ानूस 
जावदां इश्क़ है ये, खिल चले फिर बियाबान,

सरजिंश न थे जामिद, उस हसीं गुनाह के लिए 
सूली से उतरते ही, वो हो चला यूँ ही बाग़ बान,

शहर भर चर्चा रहा, है उसकी वो मरमोज़ अदा 
मीरे कारवां बन चला वो अजनबी सा इन्सान,

तलातुम से उठ चले फिर मसरक़ी फ़लक पे 
सफ़रे ज़ीस्त में चलना, नहीं था इतना आसान,

ये कोशिश के बदल जाए हाक़िम का नज़रिया
हर दौर में दुनिया चाहती है सादिक़ मेहरबान, 

-- शांतनु सान्याल 

अर्थ :   
ना शनास - अज्ञात 
नूर ए अल्वी - दिव्य ज्योति 
उफ़क रेस्मान - क्षितिज रेखा 
ज़रीफ़ - नाज़ुक 
असर ए फ़ानूस - शाम के दीये 
जावदां - अनंत 
सरजिंश - इलज़ाम 
जामिद - ठोस 
मरमोज़ - रहस्मय 
तलातुम - आन्दोलन 
ज़ीस्त - ज़िन्दगी 
सादिक़ - इमानदार
 मसरक़ी फ़लक - पूर्वी आकाश

11 जनवरी, 2024

ख़ालिस नज़र में - -

सारी रात यूँ तो बंद थे तमाम दर ओ
दरीचे, कोई ख़्वाब शायद, जो
छू कर आई थी, किसी
गुल यास का बदन,
रूह की
बेइंतहा गहराइयों में अब तलक है - -
इश्क़ ए अतर बिखरा हुआ !
वो मेरा ख़याल ख़ाम
था या इंतहाई
उपासना,
उसे महसूस किया मैंने अपने अंदर -
दूर तक ! वो नादीद हो कर
भी था तहलील मेरी
नफ़स में, कि
अक्स ए
कायनात था यूँ सिमटा हुआ सा उसकी
ख़ालिस नज़र में.

* *
- शांतनु सान्याल

  

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