23 फ़रवरी, 2011

सांसों की धुंध

इन लक्ष्मण रेखाओं के उसपार भी हैं 
जीवन की अनगिनत वक्र पगडंडियाँ 
कुछ मेघाच्छादित आकाश और झरते 
पुष्प वीथिकाएँ, न समेटो मुझे 
अपनी हथेलियों में हलकी धूप की तरह 
मोहपाश में दम घुटता सा है 
खोल दें फिर वातायन, आने दें कोई 
अपनापन, कभी तो मुझे जानने की ललक 
हो, और कभी मैं देखूं तुम्हें नज़दीक से 
कांपते हैं क्यूँ हाथ छूते ही ह्रदय स्पंदन 
झुकी डालियों से कुछ फूल गिर जाएँ 
असावधानी में, तो कोई बात नहीं, पुष्प 
गिरते हुए भी कम सुन्दर नहीं लगते 
चाहे वो ज़मीं पर गिरें या देवता के पग तले
एक अजनबीपन का रंग घिर आता है 
अक्सर, हालाकि तुम्हारी आँखों में उतरती 
है सांझ इन्द्रधनुषी कई बार, उतरोत्तर 
सजल यामिनी भरती है अथाह सुरभि 
निशि कुसुमों की, न जाने क्या बात है ?
कि तुम तकते हो बंद दरवाज़े यूँ बार बार 
हमने तो कोई दस्तक सुनी नहीं 
पास रह कर भी तुम छोड़ नहीं पाते अपनी 
मौजूदगी का अहसास, जबकि हम खुद को भूल 
जाते हैं तुम्हारी सोच में डूब कर, ये विनिमय 
भावनाओं का या हो तुम काँच के उसपार 
दिखाई जो दे लेकिन छूते ही टूट जाए, ये नाज़ुक 
सपनो की परत है या सांसों की धुंध !
--- शांतनु सान्याल  



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