21 जून, 2011

ग़ज़ल - - रूहे अफ़साना

वो ज़रा सी बात का फ़साना बना चले

अश्क तो छलक ही न पाए पलकों से

निगाहों को छूने का बहाना बना चले,

अभी आसमां खुल के बिखरा भी नहीं

शबनमी बूंदों पे वो तराना बना चले,

वो जो कहते हैं, मुझसा कोई भी नहीं

शमा जले न जले यूँ परवाना बना चले,

वजूद को मुकम्मल खिलना है बाक़ी

क़बल रात,सरे शाम दीवाना बना चले,

कि अभी अभी बदन पे उगे हैं ख़ुशबू

खिलने से पहले गुले खज़ाना बना चले,

दिल की चाहत है क्या काश, समझ लूँ

हामी बग़ैर ही वो रूहे अफ़साना बना चले,

-- शांतनु सान्याल





 





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