28 मई, 2014

नव क्षितिज की चाहत - -

उगते सूरज के साथ जब जागे निसर्ग,
कण कण में जीवन दिखाई दे
स्पष्ट, काल चक्र के
साथ हर कोई
श्रृंखलित,
कोई
कितना भी चाहे रोकना, कहाँ रुकते -
हैं मौसमी बयार, सृष्टि का
विधान है परिवर्तन,
सदैव अनवरत,
कभी झरे
पल्लव
और कभी डालियों में झूलते हैं कुसुम
वृन्त, कभी प्लावित मरुभूमि
के रेतीले पहाड़ और
कभी जीवन
वृष्टि -
छाया में परित्यक्त, फिर भी हर हाल -
में जीवन, उत्क्रांति की ओर
अग्रसर, निरंतर नव
क्षितिज की
चाहत।

* *
- शांतनु सान्याल

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