02 जून, 2014

कहीं न कहीं - -

उन मुंतज़िर निगाहों में है मेरा
इंतज़ार कहीं न कहीं, ये
और बात है, कि वो
देखते हैं नज़र
चुराए
आसमां की जानिब, पिघलते
बादलों में है शायद मेरा
प्यार कहीं न कहीं,
यूँ तो सारा
शहर
है मुख़ालिफ़ मेरे, लेकिन उस
के दिल में है मेरी बेगुनाही
का ऐतबार कहीं न
कहीं, वक़्त के
आईने में
मेरा
वजूद कुछ भी नहीं, फिर भी
न जाने क्यों, उसका
ज़मीर है सिर्फ़,
मेरा ही
तलबगार कहीं न कहीं, उन
मुंतज़िर निगाहों में
है मेरा इंतज़ार
कहीं न
कहीं।

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
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