10 दिसंबर, 2015

अपनी धरती - -

कितने सल्तनत बने और
बिखरे इसी ज़मीं की
गोद में, लेकिन
इसका
आँचल कभी सिमटा नहीं।
ये माँ है अंतहीन
दुआओंवाली,
इसे
जिसने भी ठुकराया, चैन
से सो न पाया उम्र भर
कभी। चाहे तुम
जहाँ भी
जाओ,
सहरा से किसी गोशा ए
फ़िरदौस में, लौट
आओगे इक
दिन,
इसी माँ के दामन ए
चाक में। ये ज़मीं
है फ़रिश्तोंवाला,
यहाँ हर चीज़
है इबादत
के क़ाबिल, यहाँ ज़िन्दगी
उभरती है संग ओ
राख में।

* *
- शांतनु सान्याल 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past