14 जनवरी, 2016

वक़्त से पहले - -

स्याह ख़ामोश रात की अपनी ही थी
मजबूरी, यूँ तो आसमान था
लाख सितारों से भरा।
दरअसल बहुत
कुछ की
चाह में कई बार निगाहों से फ़िसल -
जाते हैं रंगीन ख़्वाब और हम
ऊंघते हुए गुज़ार आते हैं
ख़ूबसूरत लम्हात।
हम भटकते
रहते हैँ
यूँ ही उम्रभर न जाने कहाँ कहाँ, जबकि
अंतहीन ख़ुश्बुओं का अम्बार
रहता है बिखरा हुआ,
हमारे पहलू के
आसपास।
दरअसल हम बढ़ती उम्र के साथ ख़ुद
को आईने में देखना भूल जाते हैं
और यहीं से भावनाओं पर
जंग की परत उभरने
लगती है, जो
वक़्त से
पहले हमें बूढ़ा जाती है, और हम दूर
छूटते चले जाते हैं - - -

* *
- शांतनु सान्याल

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