12 जून, 2016

लहरों से उभरते हुए - -

वो ख़ुश्बुओं में लबरेज़, उभरते हर्फ़ों में
लिखा जवाबी ख़त, आज भी मुझे
आधी रात, गहरी नींद से यूँ
जगा जाता है, गोया
बीच समंदर है
मेरा वजूद
और तू है कहीं बहोत दूर, संगे साहिल
पे लिखी कोई गुमनाम ग़ज़ल,
लहरों से खेलती हुई अपने
आप में गुमशुदा !
अक्सर
आख़री पहर जब झर जाते हैं नाज़ुक -
हरसिंगार, और हवाओं में होती है
सुबह की मख़मली दस्तक,
उफ़क़ की लकीर में
कहीं तेरा अक्स,
मुझे फिर
ज़िन्दगी की जानिब बरबस खींचे लिए
जाता है - -

* *
- शांतनु सान्याल




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