26 अप्रैल, 2018

खेद विहीन - -

ये उम्र की ढलान कुछ और नहीं, प्रेमचंद की
'बूढ़ी काकी' ही तो है, शायद तुमने पढ़ी
हो अगर नहीं तो पढ़ लेना, यहीं
आसपास किसी नुक्कड़ -
गली के एक कोने
में अपना पता
तलाशती
हुई
एक परिचित चेहरा, हम में से कोई एक ही तो
है। असंख्य दस्तक, दरवाज़ों की अपनी
अलग बेरूख़ी, घिरते अंधकार में
ख़ुद ब ख़ुद ख़्वाहिशों का
आत्मदाह, बहुत
मुश्किल है
अब
तुम्हारे वरीयता सूची में ख़ुद को शामिल करना,
अतएव बेहतर इसी में है कि क्यों न ख़ुद
को करें कपूर की तरह विलीनता
की ओर अग्रसर, अंतहीन
दुआओं के साथ। 
तरलता की
नियति
है
बहना ऊंचाई से ढलान की ओर यथारीति - - -
खेद विहीन।
* *
- शांतनु सान्याल


24 अप्रैल, 2018

ख़ुश्बू की तरह - -

मैं आज भी हूँ मौजूद उसी मुहाने पर
जहाँ उफनती नदी मिलती है
सागर के बेचैन लहरों से,
मैं आज भी हूँ मौजूद
तुम्हारे नरम
हथेलियों
में
बंद जुगनू की तरह, मैं आज भी हूँ - -
मौजूद तुम्हारे अंदर नींबू फूलों
की मादक  महक लिए
हमेशा की तरह
बेपरवाह,
कुछ
बेतरतीब और बिखरा बिखरा सा, मैं
आज भी हूँ तुम्हारे सीने में कहीं,
परदे के ओट से झांकता
हुआ मासूम बच्चे की
मुस्कराहट की
तरह, कुछ
छुपा -
छुपा सा, कुछ आत्म प्रकाशक सा, जिसे
हो एक मुश्त तवज्जो की आरज़ू, मैं
आज भी हूँ मौजूद तुम्हारे आस
पास ये और बात है कि
तुम मुझे तलाशते
हो आईने के
फ्रेम में
कहीं,
जिसे उम्र के जंग ने न जाने कब से - -
धूसर कर दिया है।


* *
- शांतनु सान्याल






 

23 अप्रैल, 2018

कोई फ़र्क़ नहीं - -

कहाँ मिलती है मनचाही मुराद, कुछ न कुछ
उन्नीस बीस रह ही जाती है तामीर ए -
ख़्वाब में। जाना तो है हर एक
मुसाफ़िर को उसी जानी
पहचानी राह के बा -
सिम्त, जहाँ कोई
फ़र्क़ नहीं
होता
दुश्मन ओ अहबाब में। उसने बहुत कोशिशें -
की, लेकिन आईना साफ़ साफ़ मुकर
गया, सारी उम्र का निचोड़ था
उसके प्रतिबिंबित जवाब
में। शबनम को तो है
छलकना  हर
हाल में,
उसे ज़रा भी फ़र्क़ नहीं पड़ता कांटें और गुलाब
में।
* *
- शांतनु सान्याल


21 अप्रैल, 2018

न धुआं न राख़ अब हैं बाक़ी, फिर भी न जाने
अब तलक क्यूँ दिल है, कि सुलगता है रह
रह कर, वो आज भी है शामिल मेरी
साँसो से गुज़र कर, रूह तक
उतर कर। 

- शांतनु सान्याल

14 अप्रैल, 2018

नेपथ्य का रहस्य - -

खुल जाते हैं अपने आप सभी
अंतरतम दरवाज़े, जब
कभी ख़ुद को देखते
हैं आईने के
आर - पार। 
हमारी अपनी ही कृति है वो
मायावी चक्र -व्यूह,
जिसमें उलझने
को जीवन
चाहता है बारम्बार। ज्ञात है
सभी को अंधकारमय
नेपथ्य का रहस्य,
फिर भी
परछाइयों के पीछे दौड़ता है
ये संसार। नदी हमेशा
की तरह झेलती है
दीर्घ एकांतवास,
लोग लौट
जाते हैं अग्नि दे कर अपने
घर द्वार। नदी का यक्ष -
प्रश्न अपनी जगह है
दृढ़ स्थिर,
अनुत्तरित देवताओं को नहीं
 जैसे कोई सरोकार।
पुरोहित लौट
जाता है
स्वगृह  संध्या के पश्चात, जीवन
 - मरण के मध्य है तव लीला
अपरम्पार।

* *
- शांतनु सान्याल

10 अप्रैल, 2018

कांच के पोशाक - - SAVE THE GIRL CHILD

अँधेरे के उसपार हैं कुछ उजालों के
फ़रेब ख़ूबसूरत, ज़िन्दगी हर
क़दम पे मांगे है अपना
ही अलग जुर्माना,
कोई ख़्वाब
का है
सौदागर, रात गहराए फेंके चाँदनी के
छल्ले, कोहरे के रास्ते है, उसका
रोज़ आना जाना। कांच के
पोशाक में सजते हैं
आधी रात, 
मेरे
नाज़ुक अरमान, टूटते बिखरते यूँ ही -
गुज़रती है लहूलुहान ये रात, और
सुबह छीन लेती है हमेशा की
तरह कुछ बाक़ी मेरी
पहचान।

* *
- शांतनु सान्याल




 

08 अप्रैल, 2018

धूप - छाँव की बस्तियां - -

ख़्वाहिशात भी इक दिन बूढ़ा जाएंगे अपने
आप, न खींच इतना उम्र को रबर की
तरह, कुछ हाशिए के लोग भी
रखते हैं अहमियत अपनी
जगह, न देख यूँ मेरी
शख़्सियत को
भूले हुए
रहगुज़र की तरह। कब कौन किस मुकाम पे
मिल जाए अनाहूत देवदूत के रूप में,
कहना है बहोत मुश्किल, खुला
रहने दे दिल अपना, किसी
उन्मुक्त परिंदे के, 
अनंत सफ़र
की तरह,
ये धूप - छाँव की बस्तियां, मुखौटों से उतरते
नामवर हस्तियां, सभी एक दिन साहिल
से टकरा कर लौट जाएंगे, किसी
अनजान लहर की तरह, दूर
मझधार में कहीं उभरती
है जुगनुओं की बस्ती,
या मेरा वहम है
किसी गुम
रौशनी के शहर की तरह। न देख यूँ मेरी - -
शख़्सियत को भूले हुए रहगुज़र की
तरह।

* *
- शांतनु सान्याल
 



07 अप्रैल, 2018

रिक्त वक्षस्थल - -

दोनों किनारे हैं धूसर, दोनों तरफ रेत के समंदर,
ढलती उम्र की बस्ती है सूखे नदी के अंदर।
न जाने किस देश उड़ गए सभी बया -
पाखियों के झुण्ड, उदास से हैं
तटबंध के बबूल वन, सिर्फ़
झूलते हैं टहनियों के
नीचे कुछ शून्य
नीड़ पिंजर।
जीवन -
नदी की है अपनी ही अलग कहानी, कुछ मौन -
कथानक झुर्रियों में हैं क़लमबन्द, कुछ
सजल वृत्तांत पथराई आँखों की
जुबानी। ऋतुओं की तरह
हैं रिश्तों के बहाव,
कभी दोनों
किनारे
लहरों से बंधे, और कभी अंजुरी न पाए एक भी
बूँद पानी। जीवन नदी की है अपनी ही
अलग कहानी।

* *
- शांतनु सान्याल
 
 

04 अप्रैल, 2018

प्रतीक्षारत - -

मालूम है हमें दास्तां ए राहज़नी, फिर भी
सफ़र यूँ अधूरा कैसे छोड़ दें, अभी -
अभी तो उभरे हैं कुछ नूर की
बूंदे दिगंत के हमराह,
सुबह होने में है
अभी देर -
बहोत,
नाज़ुक सपनों को अभी से क्यूँ कर तोड़ दें।
झूठे लिबास, मुखौटों का इंद्रजाल,
रंग फ़रेबी, अंदर और बाहर
के दरमियां इक अँधा
कुआं, अँधेरा अभी
तक हैं घना
चाहो तो
सभी परतों को आईना जड़े अरगनी पे टांग
आओ, दूर दूर तक इक सुलगता हुआ
पलाश वन है या अग्निस्नान का
रास्ता, कहना बहोत कठिन
है, ग़र तुम हो सिक्का
ख़ालिस, देर न
करो नदी -
पहाड़, समुद्र सैकत, वृष्टि - मरुधरा, तमाम -
अपवादों को निर्वस्त्र लांघ आओ। अँधेरा
अभी तक हैं घना चाहो तो सभी
परतों को आईना जड़े
अरगनी पे टांग
आओ।

* *
- शांतनु सान्याल




02 अप्रैल, 2018

सच्चा रहनुमा - -

अंधकार उतरते हैं, हमेशा
की तरह निःशब्द,
नग्न दरख़्तों 
के बीच,
अपना रास्ता बनाते हुए।
उजालों का षड्यंत्र,
है अपनी जगह
स्थिर,
फेंकते हैं नयन पाशे, माथे
पे जुगनू सजाते हुए।
जीने की ललक
करती है
मजबूर मुझे बारहा, मज़ा
आता है जीती बाज़ी,
अक्सर हार
जाते हुए।
उन
चेहरों में जब होती है
नौनिहालों सी
चमक,
दुःख
नहीं होता है मुझे ज़ुल्मे
सलीब उठाते हुए।
कोई तो हो
इस
कारवां का रहनुमा ए - -
सादिक़, यूँ तो लूटा
 है न जाने
कितनों
ने, आते जाते हुए। - - - - -

* *
- शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past